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26 oct

हमारे बीच से एक गया, लेकिन अकेला नहीं

हम सब अपने जीवन की व्यस्तता में यह मानकर चलते हैं कि हर दिन हमें मिलेगा, हर सुबह पहले जैसी ही होगी। लेकिन ज़िंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि कोई भी दिन आख़िरी हो सकता है। कोई व्यक्ति जो आज हमारे साथ बैठा है, हँस रहा है, काम कर रहा है — वह कल अचानक हमारे बीच न रहे, यह सच है और बहुत कड़वा भी।

जब कोई व्यक्ति दुनिया छोड़ जाता है, तो वह केवल एक शरीर नहीं जाता, उसके साथ एक पूरा संसार खत्म हो जाता है — उसका परिवार, उसकी ज़िम्मेदारियाँ, उसके सपने, और उन पर निर्भर लोगों का भरोसा। खासकर जब वह व्यक्ति परिवार का मुख्य कमाने वाला होता है, तो उसकी अनुपस्थिति सिर्फ भावनात्मक नहीं, आर्थिक और सामाजिक संकट भी लेकर आती है।

इस स्थिति में सबसे बड़ा सवाल यही होता है — क्या वह परिवार अब अकेला पड़ गया है? या क्या समाज उसके साथ खड़ा होगा?

आज के समय में, जब व्यक्तिगत ज़िंदगी की भाग-दौड़ में हम सब उलझे हैं, सामूहिक ज़िम्मेदारी का भाव कहीं खोता जा रहा है। हम किसी की मृत्यु पर दुख तो जताते हैं, लेकिन क्या उसके बाद भी उस परिवार के साथ खड़े रहते हैं? यह आत्मचिंतन का विषय है।

आंकड़ों की बात करें तो भारत में हर साल लाखों परिवार ऐसे हैं जो किसी सदस्य की आकस्मिक मृत्यु के बाद पूरी तरह आर्थिक संकट में चले जाते हैं। National Family Health Survey के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 60% से अधिक परिवारों के पास आकस्मिक मृत्यु की स्थिति में कोई आर्थिक सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती। यही कारण है कि जब कोई कमाने वाला चला जाता है, तो परिवार न केवल सदमे में होता है बल्कि रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए भी संघर्ष करने लगता है।

बच्चों की पढ़ाई, घर का किराया, दवाइयाँ, बुज़ुर्गों की देखभाल — ये सारी जिम्मेदारियाँ अचानक अकेले रह गए सदस्यों पर आ जाती हैं। और तब समाज की भूमिका अहम हो जाती है।

“सजग समाज सेवा सेतु फाउंडेशन” जैसी संस्थाएँ इस सवाल का एक मानवीय और ठोस जवाब देती हैं। यह फाउंडेशन एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करता है जिसमें हर सदस्य, ज़िंदगी की अनिश्चितता को समझते हुए, अपने साथी सदस्यों के लिए सुरक्षा कवच बनता है। जब कोई सदस्य दुनिया से चला जाता है, तो संस्था की ओर से उसका परिवार अकेला नहीं छोड़ा जाता। सदस्यता के माध्यम से जमा की गई राशि से उस परिवार को आर्थिक सहायता दी जाती है ताकि वे इस मुश्किल समय में सम्मान के साथ जी सकें।

यह पहल केवल धन देने की नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक साथ की भी है। जब समाज खुद यह तय करता है कि "हम में से कोई जाए, तो भी उसके पीछे उसका परिवार अकेला नहीं होगा", तब हम सच्चे सामाजिक बंधन को जी रहे होते हैं।

यह ज़रूरी है कि हम अपने आस-पास ऐसे लोगों की पहचान करें जो इस तरह के संकट से गुजर रहे हैं। उन्हें केवल सहानुभूति नहीं, वास्तविक सहयोग चाहिए — चाहे वह आर्थिक हो, कानूनी सलाह हो, बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम हो या मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी मदद।

एक और ज़रूरी पहल यह है कि हम हर नागरिक को बीमा, आपातकालीन सहायता योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बारे में जागरूक करें। बहुत से लोग जानकारी के अभाव में उन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते, जो असल में उनके लिए बनी होती हैं।

“हमारे बीच से एक गया, लेकिन अकेला नहीं” — यह सिर्फ एक वाक्य नहीं, एक विचार है, एक जिम्मेदारी है, और एक सामाजिक संकल्प है। यह वाक्य हमें याद दिलाता है कि हम एक-दूसरे के लिए हैं, और ज़िंदगी के सबसे कठिन समय में भी अगर हम एक-दूसरे का हाथ थामे रहें, तो कोई अकेला नहीं रहेगा।

आइए, हम सब मिलकर यह प्रण लें कि हम केवल अपने जीवन की चिंता नहीं करेंगे, बल्कि उन परिवारों की भी फिक्र करेंगे जो अपने सहारे को खो चुके हैं। उनके आँसू पोंछना, उनके बच्चों की पढ़ाई में मदद करना, उन्हें एक नया सहारा देना — यही सच्ची इंसानियत है।

क्योंकि अंत में, समाज की खूबसूरती इसी में है कि वह केवल खुशी के समय नहीं, दुःख की घड़ी में भी साथ खड़ा हो — मजबूती से, पूरे दिल से।